लखनऊ: अपने भतीजे आकाश को लेकर मायावती ने जो धमकी दी है वो उनका स्टाइल है. इसी तौर तरीक़े से वे राजनीति करती रही हैं. कभी कामयाब हुईं, तो कभी फ़ेल लेकिन बहन ज़ी का अंदाज नहीं बदला. आकाश के बचाव में मायावती ने कहा कि वे दब्बू नहीं हैं, वे कांशीराम की चेली हैं. बीएसपी सुप्रीमो ने कहा कि वे मुँहतोड़ जवाब देंगी. जब वे ऐसा कह रही थीं तो उनका इशारा दिल्ली में हुई एक घटना की तरफ़ था. जब कांशीराम ने एक पत्रकार को थप्पड़ मार दिया था.
मायावती की राजनीति हमेशा से ‘सिंह लड़ाने’ वाली रही है. ऐसा वे जान बूझ कर करती हैं जिससे उनके वोटरों में उनकी छवि आयरन लेडी के रूप में बनी रहे. उनका समाज उन्हें ताक़त की देवी समझे. चाल ढाल और हाव भाव को लेकर भी वे बडा सतर्क रहती हैं. उनके समर्थक उन पर आँखें मूँद कर भरोसा करते हैं. मायावती का फ़ार्मूला रहा है नहले का जवाब दहले से.
आपको बीएसपी चीफ़ और उनके रूपयों की माला वाली घटना याद है न? ये बात उन दिनों की है जब वे यूपी की मुख्य मंत्री थीं. लखनऊ के रमाबाई मैदान में बीएसपी की एक बड़ी रैली थी. तारीख़ 16 मार्च 2010 थी. मायावती को मंच पर एक बड़ी माला पहनाई गई. किसी की समझ में कुछ नहीं आया.
बाद में शाम में पता चला कि ये तो रूपयों की माला थी. जिसमें एक एक हज़ार रूपये के नये नोट लगे थे. बीएसपी के बेंगलुरू के एक नेता ने बताया कि माला 20 लाख रूपयों की बनी थी. ये ख़बर लीक करने वाले उस नेता को मायावती ने पार्टी से बाहर कर दिया.
देश भर में बवाल मच गया. नोटों की माला पहनने पर कांग्रेस, बीजेपी से लेकर समाजवादियों ने मायावती को ख़ूब कोसा. मीडिया में हर तरफ़ वही छाई रहीं. अख़बारों से लेकर न्यूज़ चैनलों का हेडलाइन मायावती को समर्पित रहा लेकिन बहिनजी का हाथी तो अपने चाल से चलता है.
अगले दिन उन्होंने बीएसपी ऑफ़िस में एक मीटिंग बुलाई और पत्रकारों को भी न्यौता भेजा. सब सोच रहे थे कि मायावती नोटों की माला पहनने पर सफ़ाई देंगी. अपने बचाव में कुछ कहेंगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. जैसे ही मायावती मंच पर आईं, उनके ज़िंदाबाद के नारे लगे.
फिर मंच पर मौजूद पार्टी के बाक़ी नेताओं में उन्हें एक माला पहनाई. ये भी नोटों की माला थी. सब हैरान रह गए लेकिन रूपयों की माला पहन कर बहिन जी मुस्कुराती रहीं. यही मायावती का राजनैतिक स्टाइल है. उनके वोटर उनकी इसी अंदाज पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं.
यूपी में जो भी मुख्य मंत्री बना उनके सरकारी बंगले पर जनता दरबार लगा. राज्य के कोने कोने से आए लोगों से सीएम मिलते हैं, उनकी शिकायतें सुनते हैं. मायावती चार बार सीएम रह चुकी हैं लेकिन उनके राज में कभी भी जनता दरबार नहीं लगा. ये भी बड़ी अचरज की बात है लेकिन मायावती हैं ही ऐसी.
बीएसपी के एक बड़े नेता से हमने इस बारे में पूछा तो उनका जवाब चौंकानेवाला था. उन्होंने बताया कि मायावती जान बूझ कर जनता दरबार नहीं करती हैं. वे लोगों की आख़िरी उम्मीद बचाए और बनाए रखना चाहती हैं. वे नहीं चाहती कि उनसे मिलने के बाद कोई ख़ाली हाथ लौटे. कम से कम ये माहौल तो बना रहे कि अगर बहिन जी को बताया होता तो मदद हो जाती.
बीजेपी हो या कांग्रेस या फिर कोई और पार्टी. हर पार्टी में प्रवक्ता होते हैं. सोशल मीडिया में उस पार्टी और उसके नेता एक्टिव रहते हैं लेकिन बीएसपी में तो ऐसा करना पाप है. 1985 में बीएसपी का गठन हुआ था लेकिन पिछले साल ही सुधीन्द्र भदौरिया इस पार्टी के इकलौते प्रवक्ता बनाए गए.
पार्टी ने आधिकारिक तौर पर ट्वीटर और फ़ेसबुक से अपने को अलग रखा है. मायावती जब भी भाषण देती हैं या फिर प्रेस कॉन्फ़्रेंस करती हैं तो लिखा हुआ ही पढ़ती हैं. साल के आख़िर में इन सबको मिलाकर एक किताब छपती है जो पार्टी के बड़े नेताओं को ही दी जाती है.
मायावती की रैलियां और चुनावी सभायें भी सबसे अलग होती हैं. मंच पर सिर्फ़ एक बड़ा सा सोफ़ा और उसके सामने टेबल लगता है जिस पर बहनजी विराजमान होती हैं. पार्टी के बाक़ी नेता मंच पर सोफ़ा के पीछे खड़े रहते हैं. भाषण भी सिर्फ़ मायावती ही देती हैं. सीएम रहते हुए मायावती शायद ही कभी ऑफ़िस जाती थीं.
सभी सरकारी काम वे अपने घर से ही निपटाती थीं. एक बार तो उन्होंने अपनी पार्टी के एक सांसद को घर बुला कर गिरफ़्तार करवा दिया था. ये बात साल 2007 की है. वे यूपी की सीएम बनी थीं. आज़मगढ़ के एमपी उमाकांत यादव को लखनऊ बुला कर पुलिस से गिरफ़्तार करवा दिया था.
यादव पर ज़मीन हड़पने का आरोप था. मायावती की पार्टी में न तो महिला संगठन है, न ही कोई छात्र संगठन. बहिन जी जो कहें वही सही. उन्होंने एक बार आलोक वर्मा को बीएसपी का उपाध्यक्ष बना दिया था. जिनको कोई नहीं जानता, न ही पार्टी के किसी नेता ने वर्मा को अब तक देखा है. मायावती किसी रहस्य से कम नहीं हैं.